मिर्ज़ा साहिबा की प्रेम कहानी

                            
                                         मिर्ज़ा साहिबा की प्रेम कहानी

 मिर्जा का जनम पंजाब के के दानाबाद नामक गाँव में और साहिबा का जनम खेवा नामक गाँव में हुआ था

जैसे ही मिर्ज़ा आठ साल का हुआ तब उसके माता पिता ने उसे उसके मामा के यहाँ पढ़ने भेजने के बारे में सोचा। उन दिनों यह सब सामान्य बात थी। और मिर्ज़ा को उसके मामा के यहाँ पढ़ने भेज दिया गया और उसके मामा ने उसका वहां की मस्जिद में पढ़ने के लिए मोलवी साहेब के वहां पर भेज दिया। ठीक उसी मोलवी साहेब के पास ही साहिबा भी पढ़ती थी और इसी बीच उनकी बहुत ही गहरी दोस्ती हो गयी।  उम्र बढ़ते बढ़ते बढ़ते उनकी यह दोस्ती कब प्यार में बदल गयी पता ही नही चला और धीरे धीरे उनकी नजदीकियां बढ़ती ही चली गयी। और जब मोलवी साहेब को यह पता चला तो उनको यह बात रास नही आई। पर उन दोनों को किसी की भी परवाह कहाँ थी। मानव समाज हमेशा से ऐसा ही रहा है प्रेम को स्वीकार करना इसकी फितरत ही नही है।  और धीरे धीरे मिर्ज़ा और साहिबा की मोहबत्त की चर्चा आम हो गयी और बदनामी के डर से मिर्ज़ा ने वह गाँव ही छोड़ दिया और वापिस अपने घर चला गया पर साहिबा कहाँ जा सकती थी ? दुनिया के तानों और मिर्जा के वियोग का संताप सहती वो वहीँ बनी रही । माता पिता के सामने तो कुछ न बोलती पर भीतर ही भीतर तड़पती रहती.! माता पिता ने बदनामी से तंग आ कर साहिबा का विवाह तय कर दिया ! कोई रास्ता न देख कर साहिबा ने मिर्जा को संदेसा भेजा कि उसे आकर ले जाये...! साहिबा की पुकार सुन कर मिर्जा तड़प उठा...और घर परिवार की परवाह किये बिना उसे लेने निकाल पड़ा ! कहते हैं जब वह घर से चला तो हर तरफ बुरे शगुन होने लगे..! पर मिर्जा तो ठान ही चुका था.अब रुकने का तो सवाल ही नही था.! उधर साहिबा की बारात उसके गाँव पहुँच चुकी थी...! परन्तु साहिबा मिर्जा के आने की खबर सुन कर अपनी सहेली की सहायता से रात के समय उससे मिली ! बारात मुंह ताकती रह गयी...!और साहिबा रात में ही मिर्जा के साथ भाग निकली...! रास्ते में फ़िरोज़ डोगर एक पुराने दुश्मन ने उनका रास्ता रोक लिया, और काफी देर तक उन्हें उलझाये रखा..! आखिर तंग आ कर मिर्जा ने अपनी तलवार निकाली और एक ही वार से उसका सिर उड़ा दिया...!
अब मिर्ज़ा के इस रूप को देखकर वह थोड़ी डर गयी और अपने भाइयों के बारे में सोचने लगी।
इस खूनी काण्ड से घबरा कर साहिबा ने मिर्जा से जल्द से जल्द उस स्थान से दूर चलने की सलाह दी ! पर मिर्जा इस अनचाहे युद्ध से थकने से भी ज्यादा चिढ गया था और थोड़ी दूर जाकर वह दोनों थक गए और एक पेड़ के नीच आराम करने लगे।
मिर्ज़ा एक बहुत अच्छा योद्धा था और वह किसी से भी नही डरता था। उसके पास तरकस में उस समय ३०० तीर और एक तलवार थे और  वह एक अव्वल किस्म का तीरंदाज़ था उसने अपना तरकस और तीर अपने  पास रख लिया और आराम करने लगा लेकिन मिर्ज़ा के सर पर इतना ज़्यादा गुस्सा देख कर साहिबा दर गयी और उससे अपने भाइयों की चिंता सताने लगी वह सोचने लगी की उसके भाई उससे बहुत प्यार करते हैं और वह उन्हें किसी भी तरीके से मना लेगी और वह दुविधाग्रस्त हो गयी और गुस्से से नही,धोखे के लिए भी नही,बल्कि अपने भाइयो की भावी मौत से डरकर,हार कर उसने उन 300 तीरों को तोड़ मरोड़ दिया और कमान को पेड़ पर टांग दिया।   
ये मोहब्बत का कौन सा रंग है??? मुझे लगता है साहिबा ने जरूर सोचा होगा।
फिर तो वही हुआ जो नियति द्वारा पहले से निश्चित था ! साहिबा के भाई और भावी ससुराल वाले उसे खोजते वहां पहुँच गए! मिर्जा जल्दी से उठकर अपना तरकस और कमान ढूँढने लगा ! और जब उसे वह नहीं मिले और  मृत्यु सामने देख कर उसने तलवार खींच ली...!
साहिबा के भाई उसके बहुत समझाने पर भी नही माने और और मिर्ज़ा को मारने लगे
मोहब्बत युद्ध नही चाहती ...बस जुल्मो-सितम के सामने अपनी आहुति देती चली जाती है...!
पर यहाँ मोहब्बत के सामने खून का दरिया लांघने की नौबत आ गयी थी...!
 कहते हैं कि  मिर्जा के भाई भी उसकी मदद को वहां पहुँच गए पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी !
दुश्मनों ने मिर्जा को पकड़ कर उसे लहू लुहान कर दिया और उस पर तीरों की बौछार कर दी !
"बुरा किया सुन साहिबा मेरा तरकस टंगा जंड (वृक्ष का नाम)
300 कानी(तीर) मिर्जे शेर की देता स्यालों में बाँट"
ये वो उलाहना है जिसे साहिबा को देने का समय निश्चित ही मृत्यु ने मिर्जे को नही दिया होगा ! पर उसकी बुझती आँखों में ये उलाहना शायद उस एक पल में ठहर सा गया होगा  ! मिर्जा की मृत्यु से साहिबा टूट गयी ज़ाहिर है पछतावे की आग ने उसे धधक धधक कर जलाया होगा,अगर मिर्जे के 300 तीर और कमान उसके पास होते तो संभवतः अपने भाइयों के आने तक वो इस युद्ध को संभाल पाता !
 उसकी वीरता पर तो साहिबा को कोई शक था ही नही पर अनजाने ही वो अपने ही प्यार की मृत्यु का कारण बन गयी !
कहते हैं...उस लहू के दरिया के मध्य मिर्जा की लाश से लिपट कर रोती - चीखती साहिबा ने भी प्राण त्याग दिए और पीछे छोड़ गयी...अपमान-अभिमान, जिद-गुस्से,और हठ की अजीब दास्तान....!
                        "   मोहब्बत तू मोहब्बत है...
                            तुझमें दर्द का गहरा पैवंद क्यों है...?
                            दर्द अगर दर्द है तो...
                             उस में सकून का द्वंद क्यों है..
                             धंसी है तलवार आर-पार फिर भी...
                            शर शैया पर तेरी आगोश सा आनंद क्यों है...??? "

यह थी मिर्ज़ा साहिबा की सच्ची प्रेम कहानी की दास्तान
आपको यह कहानी कैसी लगी comment करके मुझे बताये और आगे और भी कहानिया लिखने के लिए प्रोत्साहन दें आप मुझे e-mail करके मुझे ज़रूर बताएं मेरी e-mail id हैं nk96verma@gmail.com

















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